Friday, November 22nd, 2024

माता मनसा देवी: प्रसिद्ध शक्तिपीठ का इतिहासिक महत्व

हरियाणा के ज़िला अम्बाला में  पंजाब हरियाणा की राजधानी चंडीगढ़ से लगभग 9 किलोमीटर दूर ऐतिहासिक नगर मनीमाजरा के निकट शिवालिक गिरिमालाओं की प्रथम शृंखला पर सुशोभित माता मनसा देवी का वह सिद्ध स्थान है, जिसकी गणना तंत्र चूड़ामणि नामक ग्रंथों में वर्णित 51 शक्तिपीठों में की जाती है।

यहां पर सती के मस्तिष्क का अनुभाग गिरा था। श्री माता मनसा देवी के मंदिरों के गुम्बद दूर से ही दिखाई देने लगते हैं। इन मंदिरों की पृष्ठभूमि में पर्वतीय छटा और प्राकृतिक सौन्दर्य ऊषा की पहली किरण के साथ ही खिल उठता है। चांदनी रातों में इन मंदिरों का अपना विशेष आकर्षण होता है।

मनसा देवी मंदिर के ऐतिहासिक महत्व तथा मेलों के अवसर पर प्रति वर्ष आने वाले लाखों यात्रियों को और अधिक सुविधाएं प्रदान करने के लिए हरियाणा सरकार ने मनसा देवी मंदिर परिसर का नियंत्रण अपने हाथ में लिया था। इसको भारत के राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त है।

इस समय मनसा देवी के तीन मंदिर हैं, जिनमें मनीमाजरा के राजा द्वारा निर्मित मध्य का सबसे बड़ा एवं प्राचीन है। प्राचीन मंदिर के पीछे निचली पहाड़ी के दामन में एक ऊंचा गोल गुम्बनुमा भवन में बना माता मनसा देवी का तीसरा मंदिर है, जिसे सती माता मंदिर भी कहते हैं। इस मंदिर का भी प्रबंध 70 कनाल ज़मीन के साथ श्री माता मानसा देवी पूजा स्थल बोर्ड के पास है। अन्य दोनों मंदिरों के समान इस मंदिर में पूजा-पाठ एवं सेवा करने के लिए बोर्ड की ओर से पुजारी नियुक्त किए जाते हैं, जिनको निर्धारित वेतन, बोर्ड की ओर से ही दिया जाता है।

शिव महापुराण के तृतीय खंड एवं श्री रामचरित मानस के बालकांड में देवी उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है। माता पार्वती राजा दक्ष की कन्या थी। हिमालय पर उनका राज्य था। अपने पति भगवान शिव के साथ कैलाश पर्वत पर उनका वास था। एक दन्त कथा के अनुसार मनसा देवी का नाम महन्त मन्शा नाथ पर पड़ा बताया जाता है।

मुगलकालीन बादशाह सम्राट अकबर के समय लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व बिलासपुर  गांव में देवी भक्त मह्न्त मन्शा नाथ रहता था। उस समय यहां देवी की पूजा-अर्चना करने दूर-दूर से आते थे।  राजा गोपाल सिंह ने माता मनसा देवी के वर्तमान मंदिर के निर्माण का कार्य चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी विक्रमी संवत् 1868 सन् 1811 से विधिपूर्वक शुरू करवाया। इस मंदिर के निर्माण में सैकड़ों श्रमिक एवं मिस्त्री चार वर्ष तक काम करते रहे।

पर्वतीय शृंखला पर निर्माण कार्य करवाने में कठिनाई आई, क्योंकि उस समय वहां निर्माण कार्य की आधुनिक तकनीक उपलब्ध नहीं थी। इस मंदिर का सारा निर्माण कार्य राजा गोपाल सिंह की निजी देख-रेख में सम्पन्न हुआ। संवत् 1872 में चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को माता का भवन बनकर तैयार हो गया। मंदिर में प्रवेश करते ही दाईं ओर बहुत बड़ा बाज़ार है। दाईं-बाईं प्रसाद की सुसज्जित दुकानें हैं। लाल रंग की चुनिरयां गोटे की किनारियों में किसी शक्ति का प्रतीक मालूम होती हैं, जिनको माता के दरबार में तथा प्राचीन वृक्ष के नीचे चढ़ाया जाता है।

यहां महन्त मन्शा नाथ का धूना (स्थान) अब भी मनसा देवी की सीढ़ियों के शुरू में बाईं ओर सुशोभित है। इस मंदिर भवन की परिक्रमा में नयना देवी, वैष्णो देवी, भैरों जी, काली माता, हनुमान एवं गणेश की मूर्तियां भी सुशोभित हैं। मंदिर के एक प्रकोटा पर शिवालय में शिव परिवार की पूजा सभी यात्री श्रद्धा से करते हैं। मंदिर के प्रांगण में ही शिल्पकार की मूर्ति एवं यक्षशाला है।

माता के कलश एवं चरणपादुका पर भी यात्री श्रद्धा से पुष्प चढ़ाते हैं। मंदिर के निकट नीचे पहाड़ी के दामन में निर्मित मंदिर की पीठिका में माता की जो मूर्ति प्रतिष्ठापित है, वह सती माता के नाम से प्रसिद्ध है। माता मनसा देवी को ही सती माता के नाम से पुकारा जाता है। इस मंदिर में शिवलिंग की बहुत मान्यता है। यह स्थान महाभारत काल में पांडवों की पूजा स्थली रहा है।

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